पढ़िए चर्चित पुस्तक खाकी में इंसान की एक कहानी

उत्तराखंड के चर्चित आईपीएस अधिकारी अशोक कुमार बेस्ट पुलिसिंग के लिए जाने जाते है 1989 बैच के सीनियर अधिकारी अशोक कुमार प्रदेश में ADG  लॉ एंड ऑर्डर महत्वपूर्ण पद की अहम जिम्मेदारी संभाले हुए है। एडीजी अशोक कुमार ने प्रदेश क़ानून व्यवस्था को सुदृढ़ रखने के अलावा पुलिस विभाग के बेहतरी के लिये कई कदम उठाए हैं। लेकिन बहुत कम लोग ही जानते है कि एडीजी अशोक बेस्ट पुलिस ऑफिसर के साथ-साथ अच्छे कवि भी है। इनके द्वारा रचित पुस्तक `खाकी में इन्सान’ जिसमें पुलिस सेवा में रहते हुए कैसे आम आदमी की मदद की जा सकती है को दर्शाया गया है,लोगो को खूब पसंद आई। जिस लिए इनको भारत सरकार द्वारा जी.बी. पन्त पुरूस्कार नवाजा गया। इनकी अगली पुस्तक भी जल्द ही रिलीज होने वाली है। तो आप भी पढ़े, खाकी में कवि अशोक कुमार की कुछ कविताएं और कहानियां।
       कब जाएगी अधिकारीयों की सहाबीयत
“सेवक नहीं, साहब हैं हम”
उनका कहना, ’जनता की सेवा करो’
सिर आँखों पर…
किन्तु हमारा कहना है, ’पहले खुद की सेवा तो कर लो’
और अच्छा है !
उनका कहना, ’समग्र क्रांति से समाज को बदल डालो’
बहुत अच्छा है…
किन्तु हमारा कहना, ’परम्पराओं को बनाये रखो,
लीक पर चलते जाओ, यथास्थिति में ही भलाई है’
और भी अच्छा है !
उनका कहना, ’देश का विकास होगा तभी
गरीब जनता से जब खुद जुड़ोगे’
किन्तु हमारा कहना, ’देश के विकास से
हमें क्या लेना…
खुद का विकास हो जाए, यही बहुत है!’
‘’जुड़ने दो हमें गोरे साहबों से पहले,
परम्परा हैं वो हमारी,
जड़ें हमारी हैं इम्पीरियल पुलिस में…
कैसे बन जाएं हम जनता जैसे ?
उनके तो माई-बाप हैं हम !
साहब हैं हम !’’
                                         ’मेरी डायरी’ से  15 जनवरी,1990
       (इस कविता में ’उनका’ शब्द भारतीय पुलिस सेवा के आदर्शवादी अधिकारियों के लिये प्रयुक्त किया गया है तथा ’हमारा’ शब्द का प्रयोग उन पुलिस अधिकारियों के लिए किया गया है, जो आज भी अपनी जड़ें ब्रिटिश समय की इम्पीरियल पुलिस में मानते हैं और खुद को जनता के सेवक के बजाय ’साहब’ समझते हैं।)
पुस्तक को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा इसकी पृष्ठभूमि समझने के लिए अतीत में जाना आवश्यक प्रतीत होता है । मैंने हरियाणा के ग्रामीण परिवेश से उठकर आई. आई. टी. दिल्ली में इन्जीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की। गांँव से आई. आई. टी. तक के सफर ने मुझे यह सोचने के लिए मजबूर किया कि भारत-वर्ष दो परस्पर-विरोधी धाराओं में विकसित हो रहा है । एक तरफ तो आगे बढ़ता हुआ ’इण्डिया’  है जहां अंग्रेजीदाँ पब्लिक स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर बचपन से ही साहबी ठाट-बाट में पले धनी और प्रभावशाली लोग हैं… बड़ी-बड़ी गाड़ियों, स्टार-होटलों की चकाचैंध भरी आयातित संस्कृति को वायरल-संक्रमण की तरह तेजी से फैलाते लोग हैं जिन्हें अपनी मातृभाषा बोलने और भारतीय कहलाने  में भी शर्म आती है… जो ऐसे मौके की तलाश में रहते हैं कि अपने इण्डिया की बेहतर शिक्षा पद्धति का फायदा लेने के बाद इस देश की गर्मी, धूल और गरीबी से छुटकारा मिले और वह जितनी जल्दी हो सके इस धरती से अलविदा कहें… विकसित देशों में भाग जायें। दूसरी तरफ ’भारत’ में रहने वाले ऐसे करोड़ांे देशवासी हैं, जिनके पास रहने को मकान नहीं, खाने को एक जून की रोटी नहीं और पहनने को कपड़ा नहीं होता! देश के कुछ हिस्सों में तो आजादी के बासठ साल बाद भी बिजली, पीने का पानी और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। ऐसे लोग चपरासी तक की सरकारी नौकरी मिल जाने को अपना सबसे बड़ा सौभाग्य समझते हैं जब कि अपने गाँव-घरों में रहना उन्हें कतई गवारा नहीं।
आई. आई. टी. दिल्ली में रहते हुए मैंने देश के इस खण्डित विकास को बहुत नजदीक से देखा और इसलिए शुरू में ही संकल्प लिया कि  अपने  अधिकांश  साथियों  की तरह  विदेश  जाने का  सपना कभी  नहीं पालूंगा क्योंकि विदेश जाने को मैं उन दिनों ’ब्रेन-ड्रेन’ समझता था। यद्यपि बाद में मैंने देखा कि विदेश में गये आई.आई.टी. के छात्रों ने विदेशों में भारत की छवि को सुधारने में अहम् भूमिका अदा की। मैं तो इन्जीनियर बन कर अपने देशवासियों की सेवा करना चाहता था परन्तु चैथे वर्ष की शुरुआत में औद्योगिक टेªनिंग के दौरान मेरा मन बदल गया। मैंने अपनी इन्डस्ट्रियल ट्रेनिंग कलकत्ता में ’उषा फैन्ज’ बनाने वाली कम्पनी मंे की थी। कलकत्ता की भीड़ भरी, संघर्ष पूर्ण जिन्दगी…. गाड़ियों की चैं-चैं, पैं-पैं… आधुनिक यंत्रों के कलपुर्जों से घिरी मशीनी जिन्दगी को देखकर टेªनिंग के दौरान मुझे अहसास हुआ कि मैं एक इन्जीनियर की सीमित दायरे वाली जिन्दगी में सिमट कर रहना नहीं चाहता था।
मैं कोई ऐसी नौकरी करना चाहता था, जिसमें देश सेवा का ज्यादा अवसर हो, जिसमें गरीबी में जी रहे करोड़ों लोगों की मदद करने का मौका मिल सके, देश के आम नागरिकों तक पहुँच कर उनकी समस्याओं का समाधान किया जा सके ! मैं सीधे आम आदमी से जुड़ कर उनके लिए काम करना चाहता था। ज़िन्दगी जहाँ चुनौतियों से भरी हो… जहाँ मुझे अहसास हो कि मेरे काम से लोगों की ज़िन्दगी मंे सीधे-सीधे फर्क पड़ रहा है…। ऐसी नौकरी, जहाँ क्षमताओं के अनुरूप काम करने का मौका मिले और जहांँ जिन्दगी अधिक अर्थपूर्ण हो जाय। अपने सहकर्मियों के साथ विचार-विमर्श के बाद इन अपेक्षाओं की पूर्ति हेतु मुझे भारतीय सिविल सेवाओं के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं दिखाई दिया। मैंने भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा देकर ऊँचे आदर्शों के साथ भारतीय पुलिस सेवा ज्वाॅइन की। ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से देश की सेवा करनी है तथा गरीबों और असहायों की मदद करनी है। हम यह भी सोचते थे कि सिविल सेवा में आने वाले बाकी लोग भी हमारी तरह के आदर्शवादी विचारों वाले होंगे क्योकि भारतीय सिविल सेवाओं की परीक्षा की तैयारी के दौरान देश भक्ति और लोगों की सेवा करने का जज्बा मन में और अधिक प्रबल हो गया था।
आई. ए. एस. और आई. पी. एस. दोनों सेवाओं की प्रारम्भिक ट्रेनिंग लालबहादुर शास़्त्री अकादमी, मसूरी में होती है। अपने ऐसे ही सपनों, संकल्पों और आदर्शों से भरे हम लोग मसूरी पहुँचे थे। मसूरी अकादमी पहुँचने पर मुझे पहली ठोकर तब लगी, जब एक दिन खाने की मेज पर किसी साथी ने इस तरह के आदर्शों का खुलेआम मजाक उड़ाया और कहा, ’’बाॅस, किस दुनिया की बातंे कर रहे हो ! देश-सेवा, समाज-सेवा जैसी आदर्शवादी बातें तो सिर्फ इन्टव्र्यू में बोलने के लिए होती हैं। भई, हम तो सीधे-सीधे पावर, पैसा और स्टेटस पाने के लिये इन सेवाओं में आए हैं।’’
मुझे तो मानो साॅँप सूँघ गया! मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि कुछ लोग पहले दिन से ही इन सेवाओं को अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए ज्वाइन कर सकते हैं। परन्तु धीरे-धीरे मैंने हैरान होना छोड़ दिया क्योंकि मैंने पाया कि अकादमी में आधे लोग पहले से ही उच्च वर्गीय विकसित परिवारों से आये थे। सामान्यतः इनमें से अधिकांश लोग यथास्थितिवादी होते थे जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि सम्पन्न, वैभवशाली और इन्हीं सेवाओं से जुड़ी थी। वे लोग इनसे जुड़े नियम-कायदों को पहले से ही जानते थे और ऐसे लोगों को व्यवस्था का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने में किसी तरह की न तो हिचक महसूस होती थी और न ही शर्म। ऐसे लोग सीधे-सीधे पावर, पैसा और प्रसिद्धि पाने के लिये अधिकारी बनते हैं।
परन्तु अच्छी बात यह थी कि सभी लोग ऐसे नहीं थे, बड़ी तादाद ऐसे लोगों की भी थी जो वास्तव में जनसेवा, देशसेवा की भावना लेकर इन सेवाओं में आए थे। उन लोगों का उद्देश्य समाज के निचले तबके के लोगों की मदद करना था… वो तबका, जो धर्म, अर्थ, वर्ण या लिंग के भेदभाव के कारण विकास के निचले पायदान पर ही अटका रह गया था ।
अकादमी में ही हमें खाने-पीने, पहनने के साहबी तौर-तरीके सिखाये गए । काँटे और छुरी का कैसे प्रयोग होना है, चम्मच को कैसे रखा जाना है, मेज पर कैसे बैठना है आदि-आदि…। इस ट्रेनिंग में कहीं-न-कहीं ब्रिटिश सामंतवादी व्यवस्था की झलक दिखाई देती थी । मुझे ऐसी आशंका हुई कि कहीं हमें साहब बनना तो नहीं सिखाया जा रहा था जिससे कि हम आम जनता से खुद को अलग और खास समझें। हमारे और आम जनता के बीच का गैप बना रहे। हमारा कुछ ऐसा रुआब हो कि आम आदमी आसानी से हमारे पास आने का साहस न जुटा पाए। यह भी सम्भव था कि यह सब हमें इसलिए सिखाया जा रहा हो, जिससे कि हम साहबों वाले माहौल में अपने को बाहरी न समझें। यह तो अधिकारी की संवेदनशीलता पर निर्भर करता था कि वह ऐसी साहबियत को अपने अन्दर किस सीमा तक आत्मसात करते हैं ।
आजादी से पहले भारतीय पुलिस सेवा को इम्पीरियल पुलिस (आई.पी.) यानी ब्रिटिश सम्राट की पुलिस कहा जाता था। आजादी के बाद इसका नाम बदल कर आई. पी. एस. (भारतीय पुलिस सेवा) कर दिया गया । देश के नीति निर्धारकों की उस समय यह मंशा थी कि भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी आजादी के बाद सचमुच में जनता के सेवक की भूमिका निभायंेगे और उनमें अंग्रेज़ी जमाने की साहबियत की झलक खत्म हो जाएगी । वे आम जनता के दुख-दर्द को समझते हुए उनकी सेवा करेंगे । देश को जिस विकास की जरूरत है, जिस नई वैचारिक व प्रशासनिक क्रान्ति की आवश्यकता है, उसमें भी वे अग्रणी भूमिका निभायेंगे । किन्तु शायद ये उम्मीदें कुछ ज्यादा ही थीं और भारतीय सिविल सेवाओं (आई.ए.एस. और आई.पी.एस.) में आने वाले अधिकांश लोग साहब ही बने रहना चाहते थे।
टेªनिंग के दौरान अकादमी की ओर से हम लोगों को एक सप्ताह के लिए गाँवों के भ्रमण के लिए भेजा जाता है जिसे ‘रैपिड रूरल एप्रेजल’ (आर. आर. ए.) कहा जाता है। इस प्रोगाम के तहत सभी प्रशिक्षणार्थियांे को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े गाँवों में भेजा जाता है, जिससे कि देश के भावी प्रशासक ग्रामीण भारत के सच को निकट से देख सकें और वहां की समस्याओं को देख व समझ सकें। हम लोगों का ग्रुप उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में गया । बाँदा बुन्देलखण्ड क्षेत्र में स्थित उत्तर प्रदेश का एक बहुत ही पिछड़ा हुआ जिला है। यह क्षेत्र काफी बीहड़ और पथरीला है । क्षेत्र में चारों ओर गरीबी और हताशा का साम्राज्य नजर आता है । बाँदा की लाल मिट्टी, दूर-दूर तक फैले हुए एल्यूमिनियम के पिचके कटोरों की तरह के खाली मैदान, चरम हताशा और अकेलेपन का रोना रोती हुई अभावग्रस्त झोपड़ियाँ और युग-युगों से अपने लिए कोई सहारा खोजतीं काँटेदार वनस्पतियाँ और उनके हमशक्ल इंसान……।
हम लोग जब जनपद बाँदा के सरकारी डाकबंगले में पहुंचे तो हमारी आवभगत को काफी सरकारी अमला खड़ा था, जो ‘जी, हुजूर, साहब और सर’ के बिना बात ही नहीं करता था । हम लोगों को क्षेत्र में घूमने के लिए एक जीप दी गई । उनके व्यवहार में इतनी गुलामी झलकती थी कि उसकी हमें न तो आदत थी और न ही अपेक्षा । उनके व्यवहार से लगता था कि मानो उन्हें लग रहा था कि सचमुच उनके घर पर देश के भावी ’भाग्य विधाता’ पहुँचे थे। मानो हम उनकी रियासत के राजकुमार हैं जो बहुत दिनों के बाद अपनी जनता के बीच आए हैं ।
हमें बाँदा से आगे बरगढ़ नाम के एक गांँव मंे भेजा गया। साथ ही हमें यह भी सलाह दी गई कि रात में यात्रा न करें क्योंकि पूरे बाँदा जनपद में ’ददुवा’ नामक डकैत का आतंक है। ददुवा एक पुराना अपराधी था, जो हत्या, डकैती व फिरौती वसूलने के लिये कुख्यात था। मगर अपनी जाति का समर्थन प्राप्त होने के कारण वह पुलिस की पकड़ में नहीं आ पाता था । मुझे हैरानी हुई कि ऐसे भी डकैत हैं जो पुलिस की पकड़ से दूर हैं और जिनसे प्रशासन भी भय खाता था। हम लोगों ने अगले छह दिन बरगढ़ और उसके आस-पास के गाँवों में बिताए । पूरा क्षेत्र घोर गरीबी और उपेक्षा का शिकार था। न पीने के पानी की सुविधा, न बिजली की व्यवस्था और न खेती योग्य जमीन। मिट्टी के कच्चे घर, आधे-अधूरे कपड़ों में दौड़ते बच्चे, पेड़ की छाँव मंे बिछी टूटी खाटें, खेती करने के वही पुराने औजार, कहीं-कहीं तो बैलों की जगह जुता हाड़मांस का पिंजर इंसान, लकड़ी के गट्ठर ढोती औरतें और पानी से भरी गागर ले जाती बच्चियों को देख विकास के नाम पर चलाई जा रही योजनाओं की धरातली वास्तविकता देखने को मिली। वहाँ जाकर यह भी समझ आया कि क्षेत्र में आय के दो ही साधन हैं – खेती और पत्थरों की खदान । इन दोनों पर एक वर्ग-विशेष, मुख्य रूप से धनी लोगों का कब्जा था । अधिकांश लोग भूमिहीन मजदूर थे जो छोटे-छोटे घरेलू खर्चों के लिये धनी लोगों से ऋण लेते थे और उस ऋण को चुकता करने में ही उनकी जिन्दगी बँधुवा मजदूरों की तरह गुजर जाती थी। उन्हें गरीबी से छुटकारा मिलने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती थी। अमीर और गरीब के बीच एक चैड़ी खाई थी जिसे भरना मुमकिन नहीं लगता था ।
देश में बँधुवा मजदूरों के हितों की रक्षा के लिये कानून था, ’बँधुवा मजदूर अधिनियम’। लेकिन कानून बनाने से तो सामाजिक और आर्थिक विसंगतियाँ खत्म नहीं हो जाती। पूरे जिले में न तो उस कानून का कोई असर नजर आ रहा था और न ही सामाजिक असमानता खत्म होने के कहीं आसार नजर आ रहे थे। सरकार द्वारा गरीबी उन्मूलन के ढेरों कार्यक्रम चलाये गए थे परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अधिकांश कार्यक्रम सरकारी कर्मचारियों और कुछ विशेष लोगों को फायदा पहुँचा रहे थे । जिन लोगों के लिये कार्यक्रम बनाये गए थे वे अब भी इन कार्यक्रमों के लाभ से अछूते थे ।
एक सप्ताह तक उस क्षेत्र में रहकर हम लोग काफी हद तक क्षेत्र की जानकारी प्राप्त करने में सफल हुए। आखिरी दिन जब हम ऐसे ही एक गांव में लोगों से बातें कर रहे थे, एक पच्चीस वर्षीय युवक से हमारा सामना हुआ जिसका नाम ‘हमारी’ था। वह बहुत ही दुबला, पतला व कमजोर था। वह प्राचीन गुलामों की तरह लगता था… व्यवस्था का दास, सदियों से बेड़ियों में जकड़ा हुआ एक दीन हीन और निरीह प्राणी, जिसको सरकारी कार्यक्रमों से न कोई मदद मिल पा रही थी और न उसे किसी तरह की जानकारी थी। हम लोगों की सहानुभूति भरी बातंे सुनकर उसमें उत्साह जागा और वह अचानक ही आक्रोशित हो उठा। ऐसा लग रहा था मानो सदियों से दबाई गई उसकी खामोशी अचानक बाँध तोड़कर बाहर निकल आई हो । ’’हमने बहुत सहन कर लिया, अब हम अन्याय सहन नहीं करेंगे, हम अन्याय के खिलाफ संघर्ष करेंगे… जानवरों की तरह खामोश नहीं बैठेंगे हम… आखिर हम भी तो इंसान हैं।’’
हमारे गु्रप के बाकी लोग उसमें एकाएक उपजे इस आक्रोश को देखकर पता नहीं क्या सोच रहे थे, परन्तु मेरे मन में उसके प्रति सहानुभूति पैदा हुई। उस वक्त मेरे पास उसे देने के लिये  बौद्धिक करुणा के सिवा और कुछ भी नहीं था । मैं स्वयं को पूर्णतया असहाय अनुभव कर रहा था । लेकिन इस यात्रा से मेरे मन के इस संकल्प को बल मिला कि भविष्य में मुझे जो प्रशासनिक अधिकार प्राप्त होंगे, उससे मैं किसी सीमा तक इन सामाजिक विसंगतियों को दूर कर सकूंगा। मुझे यह भी समझ में आने लगा था कि हमारे समाज में करने को बहुत कुछ है बशर्ते कि हमारे अंदर कुछ कर सकने का जज्बा हो। इस यात्रा में मैंने यह भी महसूस किया कि लोगों की हमसे इतनी अपेक्षाएं पैदा हो गई थी कि मैं उनके बोझ तले अपने को दबा महसूस करने लगा था। लेकिन मुझे इस बात का भरोसा था कि एक न एक दिन हम कुछ करने की स्थिति में हांेगे और तब अवश्य ही इन लोगों की जिन्दगी में सकारात्मक परिवर्तन कर सकेगें।
इस यात्रा में मैंने एक ओर ‘माई-बाप संस्कृति’ को नज़दीक से देखा तो दूसरी ओर ब्यूरोक्रेसी की ‘जीप व डाकबंगला संस्कृति’ को। कुछ दोस्तों के लिए यह ‘रेपिड रूरल’ की बजाय ’रेपिड राॅयल दौरा’ बन कर रह गया था। वे लोग इस पूरे दौरे को सरकारी पिकनिक की तरह मनाते रहे और देश की गरीबी के मानचित्र को अपने कैमरों में विभिन्न कोणों से कैद करते रहे।
रेपिड रूरल एप्रेजल के बाद जब हम लोग वापस अकादमी की ओर जा रहे थे, तो मेरे मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे । देश के सामने ढेर सारी समस्याएं मुँह-बाये खड़ी थी और मुझे इन समस्याओं में अपने लिये एक चुनौती नजर आ रही थी। जिस उद्देश्य से मैने भारतीय पुलिस सेवा को चुना था, उन उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिये मैं टेªनिंग खत्म कर जल्द से जल्द अपनी कर्म भूमि में उतरने को उतावला हो रहा था।
                                         (हिन्दी फिल्म ‘अर्धसत्य’ से )
राष्ट्रीय पुलिस अकादमी, हैदराबाद से ट्रेनिंग पूरी करने के बाद मेरी पहली पोस्टिंग सहायक पुलिस अधीक्षक प्रशिक्षणाधीन के रूप में इलाहाबाद में हुई । संगम नगरी इलाहाबाद को प्रयागराज के नाम से भी जाना जाता है । दो नदियों का संगम तो कई दूसरे प्रयागों में भी होता है जैसे देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग आदि। किन्तु इलाहाबाद तीन नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर बसा हुआ शहर है, इसीलिये इसे प्रयागों का राजा प्रयागराज कहा जाता है । सरस्वती नदी का उल्लेख पुराणों में तो है किन्तु बाद में यह नदी विलुप्त हो गई । इलाहाबाद को कुम्भनगरी के रूप में भी जाना जाता है। बारह वर्ष में एक बार लगने वाला महाकुम्भ इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन एवं नासिक में हर तीन वर्षो केे अन्तराज पर लगता है । इन सब में इलाहाबाद में लगने वाले महाकुम्भ का अलग ही महत्व है ।
धार्मिक नगरी के अतिरिक्त इलाहाबाद शिक्षा और साहित्य के केन्द्र के रूप में भी विख्यात रहा है। यहाँ पर गंगानाथ झा, फिराक गोरखपुरी, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय बच्चन, धर्मवीर भारती आदि शिक्षकों का आभामंडल हमेशा मौजूद रहा है। दूर-दूर से लोग यहाँ पर अध्ययन करने के लिये आते रहे हैं। इलाहाबाद सांस्कृतिक रूप से भी शास्त्रीय गायन, लोक गायन, शास्त्रीय नृत्य एवं लोक नृत्य की समृद्ध परम्पराओं का गढ़ रहा है। राजनीतिक रूप से भी इलाहाबाद आजादी के पूर्व के दिनों से ही देश की राजनीति के केन्द्र में रहा है। मोतीलाल नेहरू का आवास ’आनन्द भवन’ आजादी की लड़ाई में कांग्रेस के मुख्यालय के रूप में प्रसिद्ध रहा है और स्वतंत्रता के बाद भी जवाहर लाल नेहरू से लेकर वी. पी. सिंह तक कई प्रधानमंत्री या तो इलाहाबाद के रहने वाले थे या वहाँ पर शिक्षा ग्रहण किये हुए थे।  चन्द्रशेखर आजाद ने यहीं पर देश की आजादी के लिये हँसते-हँसते अपने प्राणों की कुर्बानी दे दी थी।
सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से नब्बे के दशक के शुरूआती वर्ष काफी उथल-पुथल भरे थे। एक तरफ मण्डल कमीशन, दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद… दोनों मुद्दों ने देश की राजनीति में भूचाल ला दिया था । चारों तरफ आन्दोलन ही आन्दोलन नजर आते थे। ऐसी सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों में मैंने अपने पुलिस कैरियर की शुरुआत की। सबसे पहले हम लोगों को एस. एस. पी. कार्यालय से सम्बद्ध किया गया। टेªनिंग के दौरान के अपने पुराने अनुभवों की अपेक्षा जो बात यहाँ सबसे अलग देखने में आयी, वो थी लोगों का लगातार शिकायतें लेकर आना और अपनी शिकायतों का निस्तारण ढूँढना । औसतन 100 से 200 आदमी इलाहाबाद पुलिस कार्यालय में प्रतिदिन अपनी समस्याएं लेकर आते थे । कुछ लोग नेताओं के साथ आते थे तो कुछ लोग वकीलों को साथ लेकर। निश्चय ही कुछ लोग ऐसे भी होते थे जो दख्र्वास्त लेकर बिना किसी सहारे के आते थे । इन शिकायतों को ध्यान से देखने पर मुख्य रूप से जो बातें सामने आईं वे थीं – किसी का मुकदमा नहीं लिखा जाना, किसी पर हमला हो जाने पर पुलिस को शिकायत करने पर भी पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही न करना, किसी के खिलाफ झूठा मुकदमा लिखा जाना, किसी को किसी मुकदमे मेें झूठा फँसा दिया जाना, किसी का मुकदमा लिखे जाने के बावजूद भी अपराधियों की गिरफ्तारी न होना आदि-आदि । कुल मिलाकर ये शिकायतें या तो थानाध्यक्ष, चैकी इंचार्ज या हल्का प्रभारी द्वारा दिखाई पुलिस की निष्क्रियता सम्बन्धी होती या फिर पुलिस द्वारा की जाने वाली गलत कार्यवाही की ।
इलाहाबाद बहुत बड़ा जनपद था जिसमें उस समय 44 थाने एवं 14 सर्किल थे। एक इतने बड़े जिले में जहांँ अधिकारियों को कानून व्यवस्था की  समस्याएं ही दिन भर सुलझानी होती हैं, उनके पास इतनी  बड़ी संख्या में आने वाली शिकायतों को सुनने, उनकी गहराई तक जाने अथवा सुलझाने के लिये पर्याप्त समय निकाल पाना सम्भव नहीं हो पाता। अतः ये शिकायतें अधीनस्थ अधिकारियों का,े जिनमें अपर पुलिस अधीक्षक, क्षेत्राधिकारी और थाना प्रभारी मुख्य रूप से होते थे, कार्यवाही हेतु प्रेषित कर दी जाती थी। क्षेत्राधिकारी पुलिस विभाग में सबसे निचले दर्जे का राजपत्रित अधिकारी होता है। आम तौर पर थाना पुलिस के खिलाफ शिकायत वाले प्रार्थना पत्रों को जाँच करने हेतु क्षेत्राधिकारी को भेज दिया जाता था। परन्तु आश्चर्यजनक बात जिसने मेरा ध्यान आकृष्ट किया वह यह थी कि क्षेत्राधिकारी द्वारा जांच खुद न करके जिस थाने के खिलाफ वह शिकायत होती थी, उसी थानाध्यक्ष को प्रार्थना पत्र जांच हेतु भेज दिया जाता था। थाने द्वारा जो जांच आख्या क्षेत्राधिकारी के माध्यम से भेजी जाती थी, उसमें अन्ततः पुलिस की पूर्व कहानी का ही उल्लेख होता था और शिकायतकर्ता की शिकायतों को झूठा या पेशबन्दी में दिया जाना बताकर जांच आख्या एस. एस. पी. कार्यालय तक आ जाती थी। शिकायतों की ढेरों जांच फाईलों की गहराई में जाने का समय किसी के पास नहीं होता था और जांच आख्याओं के ये ढेर अंततः ’सीन, फाइल’ नोट के साथ दबा दिये जाते थे।
लगभग एक माह तक कार्यालय में बैठने के बाद मैंने यही पाया कि बेचारे शिकायतकर्ता इधर से उधर मारे-मारे फिरते हैं और उनकी शिकायतों को ध्यान से नहीं सुना जाता है। दो ही स्थितियों में कार्यवाही होती: या तो कोई प्रभावशाली व्यक्ति बहुत ज्यादा जोर देकर अपनी बात को बार-बार कहता अथवा वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक द्वारा किसी शिकायत पर विशेष रूप से ध्यान दिये जाने के लिए कहा गया होता। अन्यथा शिकायत फाइलों के ढेर में दब कर रह जाती थी। इसके बावजूद शिकायतों को लेकर आने का लोगों का सिलसिला जारी रहता था। इसे गरीब जनता की नियति कहिए या न्याय पाने की उम्मीद। देखने में यह भी आता था कि महीना दो महीना चक्कर काटने के बाद परेशान होकर वे लोग इसे अपने भाग्य की नियति मानकर चुप बैठ जाते थे। शिकायतों के निस्तारण का पुलिस विभाग का यह तरीका मुझे बिल्कुल भी न्यायसंगत नहीं लगा था ।
कुछ समय बाद मुझे थानाध्यक्ष की टेªनिंग हेतु फूलपुर पुलिस स्टेशन भेजा गया, जो इलाहाबाद से लगभग तीस किलोमीटर दूरी पर स्थित एक मंझले आकार का तहसील मुख्यालय है। आजादी के बाद फूलपुर में इफ्को जैसी एक-दो बड़ी फैक्ट्रियाँ लगाई गई थी, इसके अलावा यह थाना पूरी तरह से ग्रामीण अंचल वाला था ।
’शहर में कफ्र्यू’ जैसे  उपन्यास के सुप्रसिद्ध लेखक विभूति नारायण राय मेरे पहले वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे । पुलिस की सेवा करते हुए एक बेहतर इंसान बने रहने और अपनी मनुष्यता को बनाये रखने के मेरे विचार को उनसे बराबर  बल  मिलता रहा । उन्होंने मुझे थानाध्यक्ष की टेªनिंग में जाने से पहले यह सीख दी थी कि वहाँ नीचे के स्तर तक जाकर सीखना है और मुंशी के बस्ते पर भी बैठकर सीखना है। उन्होंने कहा था कि यदि अधिकारी बनकर के तने रहोगे तो जिन्दगी भर कुछ नहीं सीख पाओगे । मैंने उनकी बात गाँठ बाँध ली थी।
थाना फूलपुर में प्रारम्भ के चार-पाँच दिन मेरे लिये अत्यन्त हैरानी भरे रहे क्योंकि उन दिनों सुबह से शाम तक मैं थाने में बैठा रहता लेकिन कोई मुझसे मिलने नहीं आता था।  मैंने सोचा, या तो यहाँ अपराध बहुत कम हंै, अथवा हैं ही नहीं! या फिर लोगों में आपसी झगड़े नहीं होते अथवा लोगों के मन में खाकी वर्दी पर से विश्वास उठ गया है और वे लोग थाने ही नहीं आते। मैंने यह भी सोचा कि हो सकता है कि यहाँ के लोगों में पुलिस का भय अत्यधिक व्याप्त हो और वे यहाँ कदम रखने में ही घबराते हों। पांचवे दिन जब मैं पूरा दिन खाली बिताकर वापस लौट रहा था तो थाने के बाहर करीब पचास कदम की दूरी पर स्थित चाय की दुकान पर मुझे काफी भीड़ दिखाई दी। मैंने उत्सुकतावश वहाँ पर अपनी जीप रोकी और नीचे उतर कर एक वृद्ध आदमी से जानना चाहा कि यहाँ पर लोग क्यों इकट्ठे हैं ? वृद्ध ने बताया कि वह थाने पर शिकायत लेकर आये हैं। वृद्ध ने आगे बताया कि इन्सपेक्टर साहब ने उनसे कहा है कि जब तक अन्दर आईपीएस साहब बैठे हैं, तब तक कोई इधर न आएं और तब तक सब लोग चाय की दुकान पर ही रूकें। ‘साहब जब थाने से चले जाएंगे, उसके बाद ही लोग थाने पर जायेंगे।’ मैं आश्चर्य के साथ उस व्यक्ति को देखता रह गया। अब जाकर मामला मेरी समझ में आया कि क्यों मेरे पास पिछले पाँच दिनों से कोई मिलने नहीं आया था।
मैंने इन्सपेक्टर को बुलवाया और पूछा कि ऐसा उसने क्यों किया, तो उसका दो टूक जबाब था, ’’अरे साहब, आप तो राजा आदमी हैं। आई. पी. एस. अफसर को तो राजा की तरह ही रहना चाहिए। ये सब छोटे-मोटे काम तो हम लोगों पर ही छोड़ देने चाहिये।’’ उसने आगे कहा, ‘‘साहब, इनको यहाँ आकर मिलने से कुछ नहीं होने वाला है। ये लोग तो ऐसे ही आते रहते हैं। इनकी सुनेंगे तो आप भी परेशान हो जाएंगे। इनका काम तो धन्धा ही है खुद परेशान होना और दूसरों को परेशान करना ।’’ और उसने साथ में एक भद्दी सी गाली भी ठोकी।
ऐसा नहीं था कि ऐसा पहली बार इसी इन्सपेक्टर द्वारा किया गया हो । आम तौर पर कई अधिकारी इसी तरह अपनी टेªनिंग बिता देते हैं और अधीनस्थ अधिकारी ’राजा साहब’ कहकर उनको चने के झाड़ पर चढ़ाये रखते हैं और अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। कुछ ही अधिकारी होते हैं जो नीचे तक अपनी पकड़ बना पाते हैं, ऐसे अधिकारियों को स्टाफ द्वारा ’कडक’ या ’सख्त’ अधिकारी की संज्ञा दी जाती है। ‘राजा साहब’ की श्रेणी वाले अधिकारियों के कार्यकाल में नीचे का स्टाफ ज्यादा खुश रहता है, क्योंकि ऐसे अधिकारी न तो क्षेत्र में जाते हैं, न अपराध की गहराई में जाते हैं और न ही अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा किये गये गलत कार्यों की तह तक जाते हैं । ऐसे अधिकारी वास्तविकता से पूरी तरह बेखबर रखते हैं। ऐसे में अधीनस्थ अधिकारियों को खुली छूट रहती है । साहब तो राजा आदमी हैं, जो काम न कर सिर्फ मौज करते हैं और उनके नीचे के भ्रष्ट अधिकारी असली राज करते हैं। जबकि उनके कार्यकाल में कर्तव्यनिष्ठ अधीनस्थ अधिकारियों को काम करने का मौका ही नहीं मिल पाता क्योंकि ’राजा साहब’ चापलूस व भ्रष्ट अधीनस्थों से घिरे रहते हैं।
मैं उन सब लोगों को लेकर वापस थाने में आया जो चाय की दुकान पर इकट्ठा थे और एक-एक कर उन सभी की समस्याएं सुनी। अस्सी प्रतिशत मामले तो मामूली बातों पर सामने आए छोटे-छोटे आपसी झगड़ों के थे, जिनका निपटारा दोनों पक्षों की बातों को ध्यानपूर्वक व धैर्यपूर्वक सुनकर वहीं पर किया गया। ऐसे सभी लोग थाना-परिसर में समझौता हो जाने के कारण खुशी-खुशी अपने घर चले गए। उनकी खुशी और कृतज्ञता को देखकर मुझे अच्छा लगा। जब मैं थाने से वापस लौट रहा था तो जिज्ञासावश मैंने अपने हमराही पुलिस के सिपाही से उनके खुश होने का कारण पूछा। उसने मुझे बताया कि थाने का इन्सपेक्टर दलाल के माध्यम से लोगों के मन में समस्या का खौफ पैदा करता था और फिर उन्हें सुलझाने का नाटक करके लोगों से मोटी रकम एंेठता था। सिपाही ने बताया कि उसका तरीका कुछ इस तरह से होता था कि पहले एक पार्टी की शिकायत ली, उस शिकायत के आधार पर दूसरी पार्टी को थाने में उठाकर ले आए, फिर दूसरी पार्टी से पहली पार्टी के खिलाफ़ शिकायत ली, उसके आधार पर पहले वालों को भी उठा लाये और दोनों पार्टियों को जब छः-आठ घण्टे थाने में बैठा दिया जाता था, थक-हार कर उनको अपनी नादानी समझ में आ जाती थी और फिर दोनों पार्टियों का दलालों के माध्यम से समझौता कराकर व पैसा लेकर छोड़ दिया जाता था।
अगले कुछ दिनों में मुझे यह भी समझ में आया कि चाय की दुकान पर भीड़ को रोकने वाले थाने के दलाल ही होते थे । थाने की अपनी कार्यप्रणाली ऐसी होती थी कि आम आदमी थाने में सीधे घुसने की हिम्मत ही नहीं करता था । पहले तो संतरी को देखकर ही उसे डर लगने लगता था और फिर उसके बोलने के लहजे से तो उसकी रही-सही हिम्मत भी जवाब दे जाती थी ।  इसके ऊपर थाने के मुंशी की डाँट-डपट। पीड़ित व्यक्ति जब उन्हें किसी अपराध की सूचना देने जाता था तो उनसे इतने सवाल पूछे जाते थे कि पीड़ित पक्ष को लगता था कि जैसे उसने खुद ही अपराध कर डाला हो। इसीलिये लोग दलालों के बिना थाने के अन्दर आने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे ।
उस दिन लोगों की समस्याओं की मुझे जो जानकारी मिली, उनमें दो मामले ऐसे भी थे, जो थाने पर बैठकर दोनों पक्षों को सुनकर नहीं निपट पाए । दोनों पक्ष खुद को सच्चा व दूसरे को झूठा बता रहे थे। इसलिये मैंने मौका-मुआयना करने का निर्णय लिया। दोनों मामलों से जुड़ी पार्टियों को अगले दिन मैंने सुबह थाने आने का समय दिया और दोनों पार्टियों को अपनी जीप में बैठाकर हमराह स्टाफ के साथ दोनों घटनाओं के मौके पर गया । एक मामला आॅँगन को लेकर विवाद का था। दोनों पक्ष उसे अपना बता रहे थे। मौके पर जाकर हमने दोनों पार्टियों के नक्शे देखे और आस-पास के लोगों से पूछा तो स्पष्ट था कि वह एक आदमी के कब्जे में लम्बे समय से चला आ रहा था और दूसरी पार्टी जबरदस्ती उसे कब्जाने का प्रयास कर रही थी। कब्जा चाहने वाली पार्टी ने दलालों और प्रभावशाली लोगों के माध्यम से थाने में अपनी पकड़ बनाई हुई थी । मौके पर प्रस्तुत नक्शे व पूछताछ से  यह स्पष्ट हो गया कि दूसरी पार्टी थाने से दबाव बनाकर जबरदस्ती उस आँगन पर अनधिकृत कब्जा करना चाह रही थी । मौका-मुआयना की वजह से कस्बे के लोगों के सामने दबंग पार्टी की पोल खुल गई थी।उसे भीड़ के सामने शर्मिन्दा होना पड़ा और स्वीकार करना पड़ा कि उसका दावा झॅूठा था। फूलपुर कस्बे के सीधे-सरल लोगों को पहली बार लगा कि पुलिस उनके घर पर आकर भी न्याय कर सकती है। यह उनके लिए एक नई बात थी। कुछ लोगों के साथ बातें करते हुए मैंने पाया कि उनमें लगभग ऐसी अनुभूति हो रही थी कि मानो वे पुलिस व्यवस्था पर अपने खोये हुये विश्वास पर पुनर्विचार कर रहे हों।
दूसरे प्रकरण में मौके का निरीक्षण करने पर शिकायतकर्ता द्वारा बताया गया कि एक पक्ष द्वारा दूसरे के घर की दीवार तोड़ दी गई थी। मौके पर देखने पर पाया गया कि दीवार पूरी तरह क्षतिग्रस्त थी। जमीन का नक्शा देखने और आस-पास के लोगों से पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि पहले वहाँ कोई दीवार थी ही नहीं, कुछ ही दिनाें पहले थाने की मदद से  वहाँ पर दीवार खड़ी की गई थी। जिस व्यक्ति ने वहाँ पर दीवार खड़ी की थी, उसी के द्वारा यह भी शिकायत की गई कि दूसरी पार्टी ने थाने के प्रभाव से दीवार को तोड़ दिया था। इस प्रकरण की जड़ तक जाने पर स्पष्ट हुआ कि पहले एक पार्टी द्वारा थाना-पुलिस को पैसा देकर दीवार बनवाई गई थी, फिर दूसरी पार्टी से पैसा लेकर पुलिस ने ही दीवार को तुड़वा दिया था। इस प्रकार दोनों पक्षों से पैसा लेकर दोनों पक्षों के बीच दुश्मनी की आग और लड़ाई-झगड़े को हवा  दी गई थी।  मैंने मौके पर ही ग्राम प्रधान और गांव के  सम्भ्रान्त लोगों को बुलाकर दोनों पक्षों के मध्य सर्वमान्य समझौते की पेशकश की जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इन दोनों घटनाओं के बारे में मैंने तत्काल एस. एस. पी. को भी अवगत कराया । एस. एस. पी. द्वारा प्रकरण की गम्भीरता को देखते हुए हल्का-प्रभारी को निलम्बत कर दिया गया व इंसपैक्टर को लाईन हाजिर कर दिया गया ।
अब मुझे यह बात समझ में आयी कि इलाहाबाद पुलिस कार्यालय में करीब दो सौ लोग क्यों रोज शिकायत लेकर इकट्ठा हो जाते हैं। इस तरह के कुछ लोग हर थाने से जुड़े होते हैं, जिनको पैसे वालों या प्रभावशाली व्यक्तियों की थाने पर पकड़ के कारण थाना स्तर पर न्याय नहीं मिल पाता। कुछ लोगों को पुलिस कार्यालय जाने से भी न्याय नहीं मिल पाता है तो वह कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते रहते हैं। स्पष्ट था कि यदि थाना स्तर पर अच्छी पुलिसिंग हो जाय तो सीधे-सादे ग्रामीणों को दर-दर  की  ठोकरें न खानी पड़ें । उनकी समस्याओं को सुनकर तत्काल निपटाने से या पुलिस के प्रभाव से मौके पर ही समझौता करा देने से गाँव में अमन शांति बनाये रखी जा सकती है।
इस घटना के बाद पूरे थाना क्षेत्र में यह बात फैल गई कि नये साहब स्वयं मौके पर जाते हैं और तत्काल समस्याओं का मौके पर ही निस्तारण कर दिया जाता है। इस कार्यवाही से एक अच्छी बात यह हुई कि गलत शिकायतों को लेकर लोगों का थाने में आना बन्द हो गया और थाने में दलालों का प्रवेश पूरी तरह प्रतिबन्धित कर दिया गया।
इसके बाद मैंने अपना ध्यान थाना क्षेत्र में होने वाले छोटे-छोटे अपराधों पर दिया। अपराधियों की पूरी सूची बनाकर बारी-बारी से प्रत्येक गाँव के रजिस्टर नम्बर-8 को लेकर दिन में ही हर एक अपराधी के घर पर पुलिस टीम को लेकर गया। रजिस्टर नं0-8 थाने पर रखा जाने वाला प्रत्येक गांव का ऐसा रजिस्टर होता है जिसमें उस गाँव का पूरा ब्यौरा रहता है- सम्भ्रान्त लोगों का भी और अपराधियांे का भी । इसका क्षेत्र में बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ा क्योंकि प्रो-एक्टिव पुलिसिंग का यह सबसे महत्वपूर्ण कदम है। यदि हम अपराधियों को चिह्नित कर उनका पीछा करेगें तो अपराधियों को यह मालूम रहेगा कि पुलिस की हम पर नजर है। ऐसी कार्यवाही से अपराधी क्षेत्र छोड़ कर भाग जाते हैं । प्रो-एक्टिव पुलिसिंग में पुलिस पहले से ही अपराधियों को चिह्नित कर उनका पीछा करती है तथा उनके खिलाफ़ कार्यवाही करती है, इससे अपराधों में कमी आ जाती है । यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो सक्रिय अपराधी अपराध करते रहते हंै और पुलिस उनके पीछे दौड़ती रहती है।
इसी कड़ी में कुछ ऐसे लोगों के खिलाफ गुण्डा एक्ट की कार्यवाही की गई, जो अपने मोहल्ले या इलाके में छोटी-छोटी बातों में मारपीट करते थे या महिलाओं से छेड़ाखानी करते थे। इस तरह के लोगों को कहीं पर ’दादा’, कहीं पर ’गुण्डा’ व कहीं पर ’भाई’ कहा जाता है । स्थानीय स्तर पर ऐसे उचक्कों का आतंक इस कदर होता है कि लोग इनकी शिकायत करने से कतराते हैं। लोग सोचते हैं कि प्रभावशाली लोगों के दबाव में इनका तो कुछ बिगड़ेगा नहीं, व्यर्थ में कीचड़ में पत्थर फैंकने से वे लोग ही परेशान होंगे। लोगों को यह भी भरोसा नहीं होता कि थाने द्वारा उनकी शिकायत पर उन उचक्कों के विरुद्ध कार्यवाही की जायेगी। उनकी यह धारणा काफी हद तक सच भी है । मैंने ऐसे लोगों को चिन्हित कर उनके विरुद्ध गुण्डा एक्ट के अन्तर्गत जिला बदर करने हेतु कार्यवाही प्रारम्भ की।
पंद्रह दिन में ही परिणाम सामने थे। पंद्रह दिन में ही परिणाम सामने थे। अब लोगों का पुलिस पर विश्वास बढ़ गया था और उनके मन से थाने पर आने का डर समाप्त हो गया था । आम लोगों में चर्चा थी कि कोई भी व्यक्ति अपनी समस्या लेकर बिना किसी रोक-टोक अथवा दलाल के थाने पर जा सकता है । नये वाले आईपीएस अधिकारी सबकी बात सुनते हैं और स्वयं ही मौके पर जाकर समस्या का निराकरण करते हैं । गाँव एवं मौहल्लों के जिन अपराधियों के विरूद्व कार्यवाही की गई थी, उससे भी लोगों के मन में अपराधियों का डर खतम हुआ और व आगे आकर खुलकर अपने मौहल्ले के छोटे-बड़े सभी प्रकार के अपराधियों के सम्बन्ध में सूचना देने लगें । कुल मिलाकर थाने पर मेरी उपलब्धता से तथा हर किसी की समस्या ध्यान से सुनकर उसका विधिक निराकरण करने से लोगों में पुलिस की विश्वसनीयता बड़ी थी। आम आदमी की पहुँच साहब तक थी और उनकी शिकायतों पर तत्काल कार्यवाही होती थी ।
इस कार्यवाही के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि यदि पुलिस आसानी से हर किसी को उपलब्ध हो, अपनी संवेदनशीलता बनाए रखे, आम आदमी को पुलिस तक जाने में डर न लगे और पुलिस उनकी समस्याओं को सुनकर निष्पक्ष कार्यवाही करे तो निःसंदेह लोगों के मन में पुलिस के प्रति विश्वास जगेगा और उनके मन में यह धारणा मजबूद होगी कि पुलिस मूलतः उन्हीं लोगों की मदद के लिये बनी है।
        फूलपुर की ट्रेनिंग से पहले कभी-कभी मुझे लगता था कि कहीं मैं अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में तो नहीं फंँस गया हँू, जहाँ सारे रास्ते आपस में उलझ गए हैं और मेरे पास बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नहीं है… ’अर्द्धसत्य’ फिल्म के नायक की तरह कहीं कुन्ठा तो मुझे नहीं घेर लेगी ? कहीं मुझे सारी जिंदगी एक घुटन भरे माहौल में तो नहीं बितानी पड़ेगी ? मुझे लगता था कि मैं एक चैराहे पर खड़ा कर दिया गया हूँ और मेरे पाँवों को अपने क्रूर पंजों से दबोचे कुछ लोग मुझे घेरे हुए हैं। ये सब मेरे परिचित चेहरे हैं… कुछ तो मेरे ही विभाग के हैं, कुछ समाज के संभ्रांत विशिष्ट लोग हैं और कुछ लोग अपने कंधों पर रुपयों से भरी भारी थैलियाँ लिए हैं। लेकिन फूलपुर के अनुभव के बाद मुझे विश्वास हो गया कि यदि मामले की तह तक जाकर, इंसानियत के नजरिये से सोचते हुये संवेदनशील मन से एवं निष्पक्ष भाव से अच्छे लोगों के प्रति मित्रवत् व बदमाशों के प्रति कठोरता से व्यवहार कर पुलिस और जनता के बीच समन्वय स्थापित कर पुलिसिंग की जाय तो जटिल से जटिल चक्रव्यूह को भेदना और उससे बाहर निकलना मुश्किल नहीं है।

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