खेजडली आंदोलन से प्रभावित था चिपको आंदोलन
राम प्रताप मिश्र
देहरादून। देवतात्मा हिमालय यूं ही देवत्व को प्राप्त हुआ। इसके पीछे यहां के नागरिकों का विशेष श्रम है, जिसके कारण हिमालय को देवतत्मा की उपाधि दी गई। ऊपरी क्षेत्र जहां बर्फ के जंगल है, वहीं हिमालय के निचले क्षेत्र में हरे-भरे जंगल हिमालय की महत्ता को और बढ़ा रहे हैं। हिमालय से निकले वाली पयस्विनी नदियां पूरे देश को सींचने का काम कर रही है। गंगा- यमुना, सरयू, घाघरा जैसी नदियां अपनी विशिष्टता के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यह बात सच है कि विकास के नाम पर उत्तराखंड में वनों का खूब कटान हुआ है लेकिन आज भी उत्तराखंड अन्य प्रदेशों की तुलना में अधिक वनाच्छादित है। आंकड़े बताते है कि उत्तराखंड जो नौ नवंबर 2000 में अस्तित्व में आया का कुल क्षेत्र 53.483 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें कुछ वन क्षेत्र 38000 वर्ग किलोमीटर है, जो इस बात का संकेत है कि यहां आबादी से अधिक वन क्षेत्र है। वैसे भी चीन और नेपाल दो विदेशी सीमाओं से घिरा उत्तराखंड उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश जैसे अंतर प्रांतीय सीमाओं से घिरा है, जिसके कारण इसका विशेष महत्व है। हालांकि 2015-16 में यहां प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष आय 151219 रुपये आंकी गई है जो और बढ़ गई है पर वनों के मामले में इस प्रदेश की समृद्ध परंपरा यूं ही नहीं समृद्ध हो गई, इसके लिए 45 वर्ष पूर्व का इतिहास जिम्मेदार है। हालांकि उत्तराखंड में घटी एक घटना पूरे विश्व में चर्चित हो गई, जिसे गौरा देवी नाम की एक महिला ने प्रारंभ किया गया था, यह आंदोलन चिपको आंदोलन के रूप में प्रचलित हुआ। आंदोलन की महत्ता का इससे ही उदाहरण मिल सकता है कि गूगल जो इंटरनेट की महत्वपूर्ण संस्था ने सोमवार 26 मार्च को डूडल बनाकर चिपको आंदोलन को याद किया।
उत्तराखंड के चमोली जनपद में चिपको आंदोलन की शुरूआत 26 मार्च को 1973 में शुरू हुई थी। इससे पूर्व राजस्थान खेजड़ी गांव में 363 विश्नोइयों ने अपनी आहूत दे दी थी। यह घटना 18वीं शताब्दी की है। उसी घटना से सबक लेकर वनों को कटान से बचाने के लिए महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर उन्हें बचाया। यह बचाव उन्होंने वन विभाग के ठेकेदारों से किया था। भले ही आज श्रृंखला में कई नाम आ गये हैं पर श्रीमती गौरा देवी और चंडीप्रसाद भट्ट इस आंदोलन के मूल में थे। उस समय दिल्ली के एक समाचार प्रकाशन समूह के लिए समाचार भेजने वाले सुंदरलाल बहुगुणा अपने को उससे जोड़ते है लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं मानते। उनका मानना है कि मीडिया के कारण ही श्री बहुगुणा का नाम चिपको आंदोलन से जुड़ा। उस समय वह कटान के कार्य से जुड़े थे और समाचार प्रेषण करते थे। लेकिन मीडिया में भाव और प्रभाव होने के कारण अब वह चिपको आंदोलन से जुड़े माने जाते हैं।
यह आंदोलन अहिंसा की नीति पर आधारित था। चिपको आंदोलन की मुख्य भूमिका में श्रीमती गौरा देवी और चण्डीप्रसाद भट्ट जैसे नाम शामिल थे।
चिपको आन्दोलन का अर्थ पेड़ से चिपक कर उनकी रक्षा करना है। यूं तो इसकी शुरूआत 1973 में हुई थी जिस समय गांव के भोलेभाले ग्रामीणों ने पेड़ों से चिपक कर उनकी रक्षा की। तब गाँव के ग्रामीण किसानो ने राज्य के वन ठेकेदारों द्वारा वनों और जंगलो को काटने के विरोध में चिपको आन्दोलन लड़ा गया था। वनों की कटाई को रोकने के लिये गाँव के पुरुष और महिलाये पेड़ से लिपट जाती थी और ठेकेदारों को पेड़ नहीं काटने देती थी. इस आन्दोलन में महिलायों की संख्या अधिक थी। इस आन्दोलन में श्रीमती गौरा देवी और चंडीप्रसाद भट्ट सरीखे अन्य प्रमुख ग्रामीणों ने मिलकर इस आन्दोलन को अंजाम दिया।
इसे चिपको आंदोलन की ही देन कहेंगे कि उस समय की केंद्र सरकार ने पर्यावरण को एक विषय के रूप में लिया और वन संरक्षण अधिनियम की संरचना की ताकि वनों का कटान रोका जा सके।
इस चिपको आन्दोलन के कारण ही 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने एक विधेयक बनाकर हिमालयी क्षेत्रों में 15 वर्षों तक वनों के कटान पर प्रतिबंद लगा दिया जिसके कारण चिपको आंदोलन का महत्व और बढ़ गया। बाद में चिपको आंदोलन पूरे भारत में फैल गया जिसका लाभ पूरे देश को मिला।
इसी आंदोलन को देखकर राजस्थान में खेजडली आंदोलन की भी शुरूआत हुई, जिसमें अमृता देवी गु. जांबोजी महाराज की जय बोलते हुए पेड़ चिपट गई थी। कटान करने वालों ने उनका सिर काट दिया। उनके बाद उनकी तीनों बेटियों ने भी यह प्रक्रिया अपनाई और उन्हें भी अपना जीवन गंवाना पड़ा।
खेजडली आन्दोलन विश्नोई समाज की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। इस समाज की स्थापना गुरू जम्भेश्वर (जंभोजी) महाराज ने की थी। उन्होंने वनों की रक्षा के लिए 29 नियम बनाए थे, विश्नोई समाज इन्हीं नियमों का पालन करने वाला समाज बन गया।
आज सारी दुनिया में पर्यावरण संरक्षण की चिंता में पर्यावरण चेतना के लिये सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर विभिन्न कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। भारतीय जनमानस में पर्यावरण संरक्षण की चेतना और पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों की परम्परा सदियों पुरानी है। हमारे धर्मग्रंथ, हमारी सामाजिक कथायें और हमारी जातीय परम्परायें हमें प्रकृति से जोड़ती है। हमारे ऋषि-मुनि वनों में ही रहे है और उन्होंने वनों में रहकर लोगों को शिक्षा-दीक्षा दी थी।
चिपको आन्दोलन के लोगों ने भी इसी आंदोलन से सीख ली थी विश्नोई समाज मरते दम तक पेड़ों से चिपक कर उनकी रक्षा सदियों से करता आया है, और कर रहा है। 1730 में खेजड़ली में पेड़ों की रक्षा के लिए विश्नोई समाज ने जो बलिदान दिया है वो मानव इतिहास में अद्वितीय है। सन् 1730 में राजस्थान के जोधपुर राज्य में छोटे से गांव खेजड़ली में घटित घटना का विश्व इतिहास में कोई सानी नहीं है।
इस संदर्भ में इतिहास में मिलता है कि सन् 1730 में जोधपुर के राजा अभय सिंह ने नया महल बनाने का निर्णय लिया, जिसके लिये चूने की आवश्यकता थी। चूना बनाने के लिए लकड़ी की जरूरत थी। राजा ने मंत्री गिरधारी दास भण्डारी को लकड़ियों की व्यवस्था करने के लिए वहां से 25 किलोमीटर दूर गांव खेजडली का सुझाव दिया जहां खेजडली के बहुत से पेड़ थे। खेजड़ली गांव में अधिकांश बिश्नोई लोग रहते थे। यहीं प्रकृति को समर्पित बिश्नोई समाज की 42 वर्षीय महिला अमृता देवी के परिवार में उनकी तीन पुत्रियां आसु, रतनी, भागु बाई और पति रामू खोड़ भी थे।
राजा के कर्मचारी सबसे पहले अमृता देवी के घर के पास में लगे खेजड़ी के पेड़ को काटने आये तो अमृता देवी ने उन्हें रोका और कहा कि “यह खेजड़ी का पेड़ हमारे घर का सदस्य है यह मेरा भाई है इसे मैंने राखी बांधी है, इसे मैं नहीं काटने दूंगी।” राजा के कर्मचारियों ने प्रश्न किया कि “इस पेड़ से तुम्हारा धर्म का रिश्ता है, तो इसकी रक्षा के लिये तुम लोगों की क्या तैयारी है।” इस पर अमृता देवी और गांव के लोगों ने अपना संकल्प बताया कि “सिर साटे रूख रहे तो भी सस्तो जाण” अर्थात् हमारा सिर देने के बदले यह पेड़ जिंदा रहता है तो हम इसके लिये तैयार है। इस जवाब पर राजा के सैनिक वापस लौट गए। इस घटना की गूंज आसपास फैल गई। मंगलवार 21 सितम्बर 1730 को मंत्री गिरधारी दास भण्डारी सूर्योदय होने से पहले आये। उस समय पूरा गांव सो रहा था, उन्होंने सबसे पहले अमृता देवी के घर के पास में लगे खेजड़ी के हरे पेड़ों की कटाई करना शुरु कर दी। आवाजें सुनकर अमृता देवी अपनी तीनों पुत्रियों के साथ घर से बाहर निकली और पेड़ों से चिपक गई। जिनको अपनी जान गंवानी पड़ी।
यह खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल गयी तब आस-पास के 84 गांवों ने एक मत से निर्णय लिया कि विश्नोई समाज का हर व्यक्ति एक-एक पेड़ से चिपक जाएगा और यही हुआ। बिश्नोई जन पेड़ो से लिपटते गये और प्राणों की आहुति देते गये। जनाक्रोश और बलिदान को देखते हुए मंत्री गिरधारी दास भण्डारी को पेड़ों की कटाई रोकनी पड़ी ताब तक 363 बिश्नोईयों ने (71 महिलायें और 292 पुरूष) अपनी आहूति दे दी थी। यह मंगलवार 21 सितम्बर 1730 (भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत 1787) का ऐतिहासिक दिन विश्व इतिहास में इस अनूठी घटना के लिये हमेशा याद किया जायेगा।