उत्तराखंड: संघर्ष अभी और बाकी है !

उत्तराखंड को बने 15 साल हो चुके है। दो बार राज्य का नामकरण भी हो चुका है। कभी उत्तरांचल नाम से जाने वाला राज्य अब उत्तराखंड हो गया। सात बार राज्य को अलग अलग मुख्यमंत्री भी मिल चुके है। इतना कुछ बदला पर राज्य की स्थिति जस से तस है। आज भी कुमांउ और गढ़वाल के कितने गांवों,कस्बों में बेसिक सुविधाओं का अभाव है। और विडंवना यह है कि हमारे राज्य के नेताओं के कान में जूं तक नही रेगती। हां मगर चुनाव के समय उत्तराखंड की जनता की याद जरूर इन नेताओं को आती है। इसी समय हाथ जोड़कर और लुभावने सपने दिखाकर ये माननीय अगले पांच साल तक फिर गायब हो जाते है।
हैरत की बात है जिस देवभूमि उत्तराखंड को ये नेता मां का दर्जा देते है उसी राज्य की सुध से इन्हें मतलब नही होता। विकास के नाम पर भोली भाली जनता को मूर्ख बनाने की नीतियां राजनीतिक पार्टी कार्यालयों में बनायी जाती है। और विकास और उन्नति के नाम पर राज्य को सिर्फ ठेगा ही दिखाया गया। माननीयों ने राज्य में विकास के नाम पर सिर्फ सरकारी फाइलो में ही काम किया। जमीनी स्तर पर इन राजनेताओं लोगो के विश्वास को तोड़ने का ही काम किया है।
उत्तराखंड में 13 जिले है। इन जिलों में अनगिनत छोटे छोटे गांव है। यहां रहने वाले गांवो को मूलभूत सुविधाओं के बारे में पूछा तो पता चला कि गांव को _68500629_68500624शहर से जोड़ने वाली सड़क तक यहां नही बनी है। स्कूल, अस्पताल के नाम पर लोगों को दूर पैदल रास्ता तय करना पड़ता है। बिजली कुछ गांवों में तो है ही नही और जहां बिजली के पोल है उन गांवों में कुछ घंटे के लिए ही बिजली आती है। आलम यह है कि लोग परिवार को लेकर षहरों को विस्थापित हो रहे है और हमारे गांव विरान।
ऐसे परिस्थितियों मे उत्तराखंडवासियो के पास कोई और विकल्प नही रहता। जो लोग आर्थिक रूप से थोड़ा ठीक है वो रोजगार कीरोजगार की तलाश की तरफ विस्थापित हो जाते है। ऐसे में विस्थापन होना ठीक भी लगता है। पर उन लोगों का क्या जिनके पास गांव के घर के अलावा कोई अन्य स्थान सिर छुपाने को भी नही है। ऐसे में सरकारों और राजनीतिक पार्टियों का ये सौतेला व्यवहार राज्य को खोखला करने में लगा है। जिन लोगों को सुविधा मुहैया कराने की जिम्मेदारी राजनेताओं पर है पर हाल यह है कि माननीय सिर्फ अपने घर भने में लगे है।
सरकार की व्यवस्था की पोल राज्य में आने वाली छोटी और बड़ी दोनों प्रकार की आपदाओं के आने के बाद खुल जाती है। तेज बारिश सड़के बहा ले जाती है। जंगलों की आग घरो तक पहुंचने के बाद भी सरकार कोई मजबूत कदम नही उठाती है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि उत्तराखंड का भविष्य कैसे नेताओं के हाथ में है। अगर यहीं स्थिति राज्य में रही तो वो दिन दूर नही जब देवभूमि भष्ट्राचारियों का गढ़ बन जाएगी। अल्मोड़ा के मोहन जोशी बताते है कि दस बार जंगलों में लगी आग से प्राकृतिक संप्रदा को तो नुकसान हुआ हे साथ ही मवेशियों को भी आग ने निगल लिया उसके बाद भी सरकार ने आग जैसी विपदा रोकने के कोई पुख्ता इंतजाम भविष्य के लिये नही कराए। पौड़ी के राकेश कहते है कि थोड़ी सी बारिश कस्बे की जमीन अपने साथ बहा ले जाती है।
अब सवाल यह उठता हे कि इन सब परेशानियों  के होने के बाद भी हमारे भष्ट्र नेता क्यो चुप्पी साधे बैठे है। क्या इनको अभी भी कोई बड़ी त्रासदी होने का इंतजार है। नेताओ के ऐसे रवैये ने जनता को तो परेषान किया ही है साथ ही राज्य को भी खंड-खंड करने में कसर नही छोड़ी है। कब उत्तराखंड को अपने अस्तित्व को विकास की ओर अग्रसर किया जाएगा। लोग बस नेताओ से यहीं जबाव मांग रहे है और आस लगाए है कि कब राज्य को उनके हिस्से की जन सुविधाए मिलेगीं। या अभी और संघर्ष बाकी है।

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