देहरादून। साल 2017 के पद्म पुरस्कारों की घोषणा हो चुकी है। उत्तराखंड की मशहूर जागर गायिका बसंती बिष्ट को पद्मश्री सम्मान दिया गया है। बसंती को यह सम्मान कला संगीत के क्षेत्र में खास योगदान के लिए दिया गया है। सदियों से पहाड़ में जागर की परम्परा को पुरुष ही गाते थे, लेकिन प्रदेश में एक महिला ने जागर गाकर ना सिर्फ पुरुषों की इस परम्परा को तोड़ा, बल्कि जागर पर शोध कर इसे नई उचाइयों तक पहुंचाया. 40 साल की उम्र में पहली बार उन्होंने मंच पर जागर गाए तो श्रोता उनकी मधुर आवाज की तारीफ किये बिना न रह सके।
जागर कोकिला बसन्ती बिष्ट के संघर्ष की कहानी…
राज्य के पर्वतीय क्षेत्र में देवी- देवताओं का स्तुतियां जागर के जरिए की जाती है। इस परंपरा को जागर गायिका बसंती बिष्ट ने न सिर्फ आगे बढ़ाया, बल्कि जागर पर शोध कर उन्होंने फलक तक पहुंचाया। यही वजह रही कि उत्तराखंड की पारंपरिक लोक संस्कृति को संजोने के लिए इस साल उन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया है। जनपद चमोली के देवाल विकासखंड की रहने वाली उत्तराखंडी जागर गायिका बसंती बिष्ट की कहानी संघर्षोभरी है।
बसंती बिष्ट ने जिस समय जागर गाना शुरू किया उस वक्त इसका बहुत ज्यादा प्रचलन नहीं था। उन दिनों लड़कियों का सार्वजनिक जगहों पर गाना अच्छा नहीं माना जाता था पर बसंती ने हार नहीं मानी।
13 साल की उम्र में बसन्ती बिष्ट की शादी चमोली जनपद के सीमान्त गांव ल्वाणी में हुई. बसन्ती बिष्ट की मां जागर गाती थी और बचपन से ही बसन्ती बिष्ट भी जागरों को गुनगुनाने लग गई.
पांच सालों तक शास्त्रीय संगीत सीखने के बाद जब वे देहरादून लौटी तो राज्य आंदोलन अपने चरम पर था. बसन्ती बिष्ट भी आंदोलन में शिरकत करने लगी. इसी बीच बसन्ती बिष्ट ने जन आंदोलन से जुड़े गीतों को गाया तो लोगों ने बसन्ती बिष्ट की आवाज तो काफी सराहा.
बसन्ती बिष्ट के जागर जब आकाशवाणी से गूंजने लगे तो पुरुषों ने इसका विरोध कर दिया. बसन्ती बिष्ट बताती है कि आकाशवाणी में तो इसका विरोध नहीं हुआ, लेकिन जब उन्होंने मंचों से जागर गाना शुरू किया तो इसका कुछ लोगों ने विरोध करना शुरू कर दिया.
मां नंदा के जागर को उन्होंने स्वरचित पुस्तक ‘नंदा के जागर- सुफल ह्वे जाया तुम्हारी जात्रा’ में संजोया।