आखिर सत्ता से बेदखल होते ही क्यों याद आता है गैरसैण ?

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वरिष्ट पत्रकार अजित राठी की कलम से: सत्ता में आने पर गैरसैण को राजधानी बनाना भूल जाते है नेता, विपक्ष में आते ही याद आने लगते है पहाड़ के हित
सीमांत जनपद चमोली के एक छोटे से नगर गैरसैण को उत्तराखंड की स्थाई या ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने की गुत्थी सुलझने के बजाय उलझती जा रही है। भाजपा या कांग्रेस में से जब भी कोई दल सत्ता में रहता  है तो गैरसैण उसकी आँख में कांटे की तरह चुभने लगता है। और, सत्ता से बेदखली होते ही गैरसैण उसी दल की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शुमार होता जाता है जिसने पांच साल सत्ता का मज़ा लेते समय गैरसैण पर केवल औपचारिक रस्मअदायगी भर की। पिछले १७ सालो में एक ही बात समझ में आई है कि भाजपा, कांग्रेस के लिए गैरसैण का महत्व तभी तक है जब तक वो सत्ता से बेदखल रहते है।
17 साल बाद भी सत्तारूढ़ दलों के लिए गैर बने गैरसैण के मुस्तकबिल का अंदाजा किसी को नहीं है। गैरसैण पर किसी तरह का निर्णय लेने के लिए प्रदेश में सियासी हालत लगातार गैरजिम्मेदार होते जा रहे है। गैरसैण की सबसे जयादा वकालत करने वाले उत्तराखंड क्रांति दल को जनता की अदालत तड़ीपार कर दिया। यह पहली विधानसभा है जिसमे उत्तराखंड क्रांति दल का एक भी विधायक जीतकर नहीं पहुंचा। दरअसल, उंगलियों पर गिनने लायक रह गयी गैरसैण के पैरोकारों की संख्या ने भी राजनीतिक दलों का काम आसान कर दिया। गैरसैण को लेकर अब राजनीति करने वालो के साथ जनता में भी पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया है। गैरसैण का मसला केवल राजनीतिक बयानबाजी की विषय वास्तु रह गया है।
2007 में भाजपा सत्ता में आई, मुख्यमंत्री बने बीसी खंडूड़ी ने राजधानी कहाँ बने, इसे लेकर राजधानी चयन स्थल आयोग का गठन किया। राजधानी कहाँ बने इसे लेकर दो ढाई सालो में आयोग पर लगभग ढाई करोड़ रुपया खर्च हुआ। आयोग की रिपोर्ट को विधानसभा में रखा गया लेकिन आयोग के ये दस्तावेज भी इस समस्या का हल तलाशने में नाकाम रहे। लेकिन इस दौरान विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने गैरसैण को राजधानी बनाने को लेकर भाजपा की नाक में दम किये रखा। उस समय यशपाल आर्य कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष और हरक सिंह रावत कांग्रेस विधानमंडल दल के नेता थे। संयोगवश दोनों बाद में कैबिनेट मंत्री बने और हसीन इत्तेफ़ाक़ यह है कि दोनों ने चुनाव से पहले कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया और अब दोनों फिर कैबिनेट मंत्री है, लेकिन गैरसैण दोनों के लिए ही गंभीर विषय नहीं रह गया है।
2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों  घोषणापत्र में गैरसैण मुख्य मुद्दा था। लेकिन सत्ता में आई कांग्रेस कुछ कदम चली। तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने नवम्बर 2012 के आसपास गैरसैण में मंत्रिमंडल की पहली कैबिनेट आयोजित की और उसी दिन यह तय हुआ कि मकर संक्रांति (14 जनवरी 2013) को भराड़ीसैण में विधानसभा भवन निर्माण के लिए भूमिपूजन किया जायेगा। अब इस उपलब्धि को कांग्रेस की माने या बहुगुणा की इच्छा शक्ति के रूप में देखे, यह विश्लेषकों पर छोड़ देना ही बेहतर होगा। उसके बाद विधानसभा भवन तो बना लेकिन कांग्रेस की हरीश रावत सरकार गैरसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी तक घोषित तक नहीं कर सकी। इस दौरान भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष की दोहरी जिम्मेदारी सँभालने वाले भाजपा नेता अजय भट्ट कोई मौका नहीं छोड़ते थे जब गैरसैण पर सरकार की घेराबंदी ना की हो। कई बार तो अजय भट्ट ने विधानसभा तक नहीं चलने दी और सड़क से सदन तक गैरसैण को स्थाई या ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने को लेकर हंगामा किया, लेकिन अब अपनी ही सरकार आई तो बोलने से पहले दस बार सोचते है। भाजपा के सत्ता  बाद से अभी तक उन्होंने गैरसैण को लेकर कोई वकालत नहीं की। भट्ट अभी भी इस मुद्दे पर कांग्रेस को कोसते रहते है, खुद की  स्टैंड रहेगा, इस सवाल पर उनके होंठ जैसे सिल  से जाते है।
दरअसल, लोकतंत्र में जनता को किस तरह से और कितना बेवकूफ बनाया जा सकता है, उत्तराखंड में गैरसैण का मुद्दा इस बात का बेहतर उदहारण साबित हुआ है। सत्तारूढ़ दलों के लिए गैर हुए गैरसैण पर मौजूदा त्रिवेंद्र सरकार की भी कोई स्पष्ट नीति नहीं है। अब वही कांग्रेस गैरसैण को राजधानी बनाने को लेकर आंदोलन पर उतारू है जिसने पांच साल में ठाट के साथ सत्ता का सुख भोगा। यदि सैकड़ो करोड़ रूपये खर्च कर साल में दो बार दो दो दिन का पिकनिक टाइप सत्र बुलाकर सियासी रोटीसेकी जा सकती है तो इसमें नेताओ का क्या हर्जा है ??

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