सरकारी संस्थाओं की पोल खोलती बेबसी की ये तस्वीर!

 

कुलदीप राणा, रूद्रप्रयाग : कहते हैं जिन्दगी का सबसे बड़ा अभिशाप गरीबी होती है। इंसान की जिंदगी में गरीबी एक ऐसा श्राप है जो न जाने इंसान को क्या-क्या दिन देखने पर मजबूर कर देती है लेकिन इस गरीबी में अपंगता जैसी विवशता रहे तो जिंदगी और भी बोझिल हो जाती है। भले ही अपंगता और दिव्यांग जैसा भद्दा मजाक ईश्वर द्वारा किया गया हो मगर इस विवशता के लिए बनाये गए इंसानी सिस्टम क्यों फेल हो जाते हैं। यह बड़ा सवाल हमारे सामने मुँह फाड़े जवाब मागने की प्रतीक्षा कर रहा है। रुद्रप्रयाग जनपद के जखोली विकासखण्ड के सौंदा गांव के 22 वर्षीय दिव्यांग पंकज की कहानी वास्तव में हमारी सरकारी तंत्र और तमाम उन गैर सरकारी संस्थाओं की पोल खोल रही है जो मानव उत्थान के दावे करते नहीं थकते हैं।


विकास खंड जखोली के सौंदा गाँव की सरोज देवी को गरीबी जैसी नरकीय जिंदगी भले ही विरासत में मिली हो मगर ईश्वर ने भी सरोज देवी के साथ ऐसा भद्दा मजाक किया कि उसे आजम दुःखों के पहाड़ के नीचे दबने के लिए छोड़ दिया। सरोज देवी की चार संतानों में एक लड़के को जन्म से ही दिव्यांग पैदा हो कर दिया। सरोज देवी के पति मुम्बई होटल में काम कर जैसे-तैसे परिवार का भरण पोषण कर रहे थे किन्तु पांच साल पूर्व उनकी भी हृदय गति रूकने से मौत हो गई। चार संतानो के लालन पालन की जिम्मेदारी सरोज के कंधो पर आ गई लेकिन देहांती गांव की महिला करती भी क्या। ऊपर से अपाहिज पुत्र की देख रेख की जिम्मेदारी हर रोज उसे अंधर से तोड़ देती। स्थिति यह है कि 22 साल के अपाहिज पंकज को दिन भर रस्सों से बाँध कर वो ध्याड़ी मजदूरी करती है। सरोज कहती है कि चुनावों के वक्त नेता वोट मांगने तो आते हैं किन्तु कभी मेरे अपाहिज बेटे की तरफ किसी का ध्यान नही गया। जबकि अब गांव में लोग मुझे मजदूरी पर भी रखने के लिए मना कर देते हैं क्योंकि मुझे आधे दिन में अपाहिज बेटे को देखने घर आना पड़ता है। वहीं समाज कल्याण विभाग द्वारा 22 सालों में भी इस दिव्यांग बालक की पेंशन तक नहीं लगाई है जो सरकारों की योजनाओं पर बड़ा प्रश्न चिंन्ह लगाती है।
उधर मुख्य चिकित्सा अधिकारी सरोज नैथानी को तीन माह पूर्व जब अपाहिज पंकज के बारे में पता चला तो उनका दिल पसीजा और उन्होंने उस गरीब परिवार के साथ ही इस बालक को आजीवन गोद लेने का फैसला कर दिया। वे हर माह दो हजार रुपये अपने वेतन से इस परिवार को आर्थिक सहायता के रूप में दे रही हैं। वहीं समय-समय पर सौंदा गांव जाकर इस परिवार का हालचाल जानती है। एक ओर सरकारें दिव्यांगों के उत्थानों के लिए तमाम तरह की योजनाएं बना रही हैं वहीं गैर सरकारी संगठन भी दिव्यांगों के नाम पर तरह-तरह की ठगी करते रहते हैं किन्तु ये योजनाएं पंकज जैसे असहाय तक क्यों नहीं पहुँच पाती हैं यह सोचनीय विषय है और हमारी सरकारों की कार्यशैली पर सवालिया निशान लगाती है।


उत्तराखण्ड की सरकारें दिव्यांगों के लिए तरह-तरह की योजनाएं तो चला रही है लेकिन आज भी दूरस्थ गांवों में न जाने पंकज जैसी कितने मां ये अपने विकलांग बेटों को जंगली जानवरों के भय और गिरने के डर सेे खूंटे से बंधे हुए हैं किन्तु उनकी जिन्दगी में सरकारों और बाल संरक्षण आयोग द्वारा तिनका भर भी उजियारा नहीं ला पाई हैं। वहीं मानव उत्थान के लिए विभिन्न आयोग एवं संस्थाएं काम कर रही हैं किन्तु उनके कार्य कागजों से निकल कर धरातल पर नहीं आ पा रही हैं। दूसरी तरफ मुख्य जिकित्सा अधिकारी सरोज नैथानी ने इस गरीब और असहाय परिवार को गोद लेकर इन्सानियत की एक नई मिशाल पेश की है जो सरकारी योजनाओं को आईना दिखा रही हैं।

 

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