

वरिष्ठ पत्रकार {अजित राठी की कलम से}:–:अभी हाल ही में एम करुणानिधि के निधन के बाद देश के पॉलिटिकल कॉरिडोर में इस बात को लेकर जबरदस्त बहस छिड़ी हुई है कि अब तमिलनाडू की राजनीति किस दिशा में जाएगी। क्या स्टालिन डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) के उत्तराधिकारी के रूप में सफल होंगे या फिर करुणा की 61 साल पुरानी यह रियासत भरभरा कर गिर पड़ेगी। ऐसे तमाम सवाल राजनीतिक पंडितो को मथ रहे हैं।
लेकिन राजनीति के इस समुद्रमंथन के बीच मेरे मन में एक सवाल यह है कि तमिलनाडु में ही नेता की मौत के गम में आत्महत्या की हद तक पहुँच क्यों जाते हैं ??? काफी हद तक आंध्र में भी इतिहास ऐसी घटनाओ का चश्मदीद है। जब देश भर में राजनेताओ को लोग मुफ्त में गाली देते हैं तो क्यों दक्षिण में लोगों के अपने नेता से इतनी मोहब्बत करने का क्या राज हो सकता है ??? और ऐसा उत्तर भारत में क्यों नहीं होता। यहां नेताओ को जनता उतना सम्मान क्यों नहीं देती जितना एम् करूणानिधि और जे जयललिता को वहां के लोगो ने दिया। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि ये सब तमिल और खासतौर पर दक्षिण फिल्म इंडस्ट्री के लोकप्रिय कलाकार होने के कारण पहले से ही जनता के दिलो पर राज करते थे। लेकिन उत्तर भारत में बॉलीवुड के कई महानायको ने राजनीति तो की लेकिन सियासी जलवा फीका ही रहा। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन 1984 में इलाहबाद संसदीय सीट से यूपी के मुख्यमंत्री रहे हेमवतीनंदन बहुगुणा को शिकस्त देकर और गोविंदा मुंबई से रामनाईक जैसे दिग्गज को हराकर भी नेता बनने से चूक गए। ड्रीम गर्ल हेमामालिनी व सिनेतारिका जयाप्रदा सीधे लोकसभा पहुंची तो जया बच्चन राजयसभा गयी। शॉटगन मशहूर शत्रुघ्न सिन्हा, सुनील दत्त और विनोद खन्ना केंद्रीय मंत्री बने लेकिन जनता के दिल में उतनी घुसपैठ क्यों नहीं कर सके जितने कि तमिल नेताओ ने की।
यह सच है कि तमिलनाडु जैसे राज्यों में नेता और जनता के बीच भरोसे की गांठ बहुत मजबूत है। मुझे लगता है कि वहां के नेताओ और जनता के रिश्तो में ईमानदारी जिन्दा है तभी तो पब्लिक अपने नेता के लिए पागल है। लेकिन, उत्तर भारत में राजनेता और जनता के बीच इतने गहरे रिश्ते क्यों विकसित क्यों नहीं हो सके ??? यहाँ किसी भी राज्य में ऐसा कोई नेता क्यों नहीं जिसके लिए जनता अपनी जान देने पर आमादा हो जाय। तमिलनाडु में एमजीआर रामचंद्रन के बाद जयललिता और अब करूणानिधि के प्रति लोगो की दीवानगी बहुत कुछ कहती है। कर्नाटक में राजकुमार और आंध्र में एनटी रामाराव को लेकर भी पब्लिक इतनी ही पागल थी। उपरोक्त इस सभी दक्षिण भारतीय नेताओ की जनसभा हो या फिर निधन जैसा हादसा, उनके समर्थको का हुजूम जिस तरह से उमड़ा और लोगो ने अपनी जान दे दी उसने उस सियासत को रेखांकित किया है जो कि अंधभक्ति का प्रतिक है। उत्तर भारत में लोकप्रियता के बावजूद नेताओ के प्रति ऐसा भाव जनता में देखने को नहीं मिलता। क्योंकि खासकर तमिल नेताओ ने कला संस्कृति, राजनीति और जनता जनार्दन की अपेक्षाओं के बीच समन्वय का ऐसा बेहतर सेतु तैयार किया, जिस पर जिंदगी भर बगैर किसी बाधा के आवाजाही बरक़रार रही है।