
गीता में कहा गया है कि जिस प्रकार केवल वस्त्र बदल लेना स्नान नहीं माना जाता, उसी प्रकार दिखावे का परिवर्तन समाज को शुद्ध नहीं करता। शुद्धि के लिए आवश्यक है मन का परिवर्तन। क्योंकि जो गतिमान है, वही मनुष्य है। जो स्थिर हो गया, वह पाषाण है। और जो समय के साथ अपनी सोच न बदले, वह श्मशान है।
आज लोग दिमागी तौर पर काफी विकसित हो गए हैं। हर एक चीज को स्याह-सफेद के तराजू में तौल कर देखते हैं। तर्कशक्ति का भी विकास हो रहा है तो कुतर्कशक्ति भी चरमसीमा पर है। अपने आप को सर्वश्रेष्ठ साबित करने की होड़ लोगो में लगी हुई है। दिन प्रतिदिन लोग विकास की नई ऊंचाई प्राप्त कर रहे हैं और इतिहास के इस कालखंड के मानव को सबसे विकसित मानव की संज्ञा दे रहे हैं।

समाज का विकास तो हो रहा है, लेकिन साथ ही समाज से नैतिकता खत्म होती जा रही है। हम सत्य बोलने से इतना डरने लगे है कि जैसा छोटा बच्चा घने अंधेरे मे जाने से डरता है। हमें समझना होगा कि सच बोलने से डरने वाला मन ईश्वर से दूर होता चला जाता है।
यह तो सृष्टि का चक्र है कि जीवन हमेशा एक-सा नहीं रहता। परंतु इसके साथ ताल-मेल रखने के लिए हमें समय के साथ निरंतर बदलाव लाना है। ध्यान रहे कि हमारी सोच और हमारे संकल्प से ही सृष्टि बनती है, न कि सृष्टि से संकल्प। अतः संकल्प की शुभता ही श्रेयस्कर है।