नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि ससुराल में आने के बाद किसी शादीशुदा महिला की निजता की मांग को पति के प्रति क्रूरता के तौर पर नहीं बताया जा सकता है और यह तलाक का आधार नहीं हो सकता है.
दिल्ली उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट्ट और दीपा शर्मा की एक पीठ ने कहा, ‘‘निजता किसी का भी मौलिक मानवीय अधिकार है. ऑक्सफोर्ड शब्दकोश ‘निजता को एक ऐसी अवस्था बताता है जिसमें किसी पर निगरानी नहीं की जाती या अन्य लोग उसकी अवस्था में खलल नहीं डालते हैं.’ इसलिए जब भी कोई महिला अपने ससुराल जाती है तो उसके ससुराल वालों का यह कर्तव्य है कि वे उसे कुछ निजता प्रदान करें.’’ महिला के पति ने 2010 में उसकी शादी तोड़ने वाली याचिका खारिज करने के निचली अदालत के फैसले को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी, जिसे खारिज करते हुए अदालत ने यह टिप्पणी की.
महिला के पति ने अदालत के समक्ष क्रूरता के अलावा उनकी ‘‘नाकाम शादीशुदा जिंदगी’’ को भी तलाक का आधार बताया. उसने कहा कि उनकी वैवाहिक जिंदगी अपने मायने खो चुकी है क्योंकि पिछले 12 वर्ष से वे अलग रह रहे हैं और अब वे ऐसे मुकाम पर पहुंच गए हैं जहां से कभी लौटा नहीं जा सकता है.
बहरहाल, पीठ ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने 2006 में नाकाम शादीशुदा जिंदगी को तलाक का आधार बताते हुए केंद्र को हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन का सुझाव दिया था, लेकिन अब तक इसे अधिनियम में जोड़ा नहीं गया है.
पीठ ने कहा, ‘‘इसलिए ‘‘नाकाम शादीशुदा जिंदगी’’ के आधार पर तलाक की मंजूरी देना अदालत के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता.’’ व्यक्ति की शादी 2003 में हुई थी और उसने महिला की क्रूरता और संयुक्त परिवार में रहने की अनच्छिा के कारण अलग घर के लिए उस पर दबाव डालने को आधार बनाते हुए निचली अदालत में तलाक की अर्जी दी थी.