
फिल्म पद्मावती पर पिछले कुछ दिनों से जो हंगामा मचा हुआ है, वो आज बच्चे- बच्चे की जुवान पर है, इस वक्त मीडिया की सुर्खियों में सबसे टॉप पर है. बता दे कि मेवाड़ राजघराने के वंशज विश्वजीत सिंह ने हाल ही में एक अखबार में फिल्म पद्मावती को लेकर इतिहास और काल्पनिकता के बीच एक लेख लिखा था, जो बेहद आश्चर्यजनक था.
सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अपने समकालीन और आधुनिक इतिहासकारों के बीच एक सम्मानित जगह हासिल की है. इसकी वजह उसके किए गए काम हैं. खिलजी ने मंगोलों के आक्रमण को नाकाम किया, बड़े-बड़े साम्राज्य को जीता, आम आदमी के लिए रोजमर्रा के जरूरी सामानों की कीमतों को कम किया, सरकार के काम करने के लिए शरीयत को फिर से परिभाषित किया. इन कामों को करने के दौरान जब वो औरतों के पीछे नहीं पड़ा रहा, तो उसे पद्मावती कब मिली?
खिलजी ने चित्तौड़ के राणा को 1303 में लड़ाई में हराया और 1316 में उसकी मौत हो गई. उस वक्त तक या फिर उस पूरी लड़ाई के दौरान भी पद्मिनी या पद्मावती का नाम अस्तित्व में ही नहीं था. पद्मावती का जन्म अलाउद्दीन खिलजी की मौत के 224 साल बाद 1540 में हुआ था. पद्मावती को जन्म दिया था एक सूफी संत मलिक मोहम्मद जायसी ने अपनी किताब पद्मावती के एक किरदार के रूप में. जायसी अवध के जायस के रहने वाले थे, जो चित्तौड़ से काफी दूर था. जायसी एक सूफी संत थे और वो कविता की उस विधा को मानते थे, जिसमें भगवान को प्रेमी और इन्सान को प्रेमिका के तौर पर माना जाता है और प्रेमिका हर बंधन को पार करके अपने प्रेमी से मिलती है. खिलजी ने भी कई बाधाएं पार की थीं.
रम्या श्रीनिवासन ने रानियों की कहानियों पर उत्तर भारत से लेकर राजस्थान और बंगाल तक के 16 से 20वीं शताब्दी तक के तथ्यों की पड़ताल अपनी किताब “द मेनी लाइव्स ऑफ ए राजपूत क्वीन” में की है. जायसी की मूल किताब और इसके कई ऊर्दू और पर्शियन अनुवादों में यही तथ्य है खिलजी ने पद्मिनी से शादी का प्रस्ताव रखा था. उसी वक्त में उसे राजस्थान में राजपूतों के सम्मान को बचाने के लिए पद्मिनी के शरीर जोड़ दिया गया. 19वीं सदी में बंगाल में पद्मिनी को एक बहादुर रानी के तौर दिखाया गया. चित्रण ऐसा किया गया कि उस रानी ने कामुक मुस्लिम आक्रमणकारियों से खुद की आन बचाने के लिए जौहर कर लिया था. पद्मिनी की इस कहानी ने सीधे तौर पर तो नहीं, लेकिन परोक्ष रूप से सामंती व्यवस्था के खिलाफ एक ऐतिहासिक प्रतिरोध तैयार किया. यह प्रतिरोध और ऐसे प्रतिरोध के नायक दूसरी साहित्यिक कृतियों, जैसे बंकिम चंद्र चटर्जी के आनंद मठ में दिखने लगे.