
माता-पिता का ज्यादा प्यार बच्चों को गुस्सैल बना सकता है। अतिरिक्त लाड प्यार से बच्चे जिद्दी और सुविधाभोगी हो जाते हैं, जो उनके भावी जीवन के लिए उचित नहीं है।
माता पिता, ख़ास कर भारत में अपने बच्चों को अतिरिक्त लाड प्यार देने की कोशिश करते हैं, विशेष रूप से, अगर उनका एक ही बच्चा हो। उसे कोई काम नहीं देतें, सच्चाई से दूर रखते हैं, वह जो चाहते हैं, जायज़ हो या नहीं, वह उसे लाकर देते हैं। कभी उन्हें समस्या का सामना करना ना पड़े, इस मनोभावना से बच्चों को कहीं भी आगे भेजते ही नहीं, कठिन काम की ज़िम्मेदारी माता पिता स्वयं लेते हैं। यहाँ तक कि, उम्र बढ़ने के बाद भी माता पिता का रवैया अपने बच्चों के प्रति समान रूप सम्वेदनशील रहता है। बच्चे के लिए सभी फैसले वे खुद लेना चाहते हैं, उन्हें लगता है, बच्चों को उतनी समझ नहीं है, वह सोचेंगे, फैसला लेंगे तो उन्हें दिक्कत होगी। बड़े हो जाने के बाद भी सन्तान को वास्तविकता से दूर रखना ही जैसे माता पिता का धर्म है, ऐसा समझते हैं।
भारत में आज भी, बच्चा बड़ा हो जाने के बाद भी, माँ उसे उसके बचपन के नाम से ही पुकारती है, उसे महसूस ही नहीं होने देते, कि वह बड़ा हो चुका है। ये केवल ममता है, ऐसा कहना सही नहीं होगा, इसके साथ एक मानसिक सोच जुडी होती है, अकसर माता-पिता को लगता है, कि उनके बच्चों पर उनका अधिकार है, और जब तक वे उन पर निर्भर करेंगे, स्वतंत्र नहीं होंगे, तब तक ये अधिकार बना रहेगा।
अगर बच्चों ने खुद अपना सारा काम करना शुरू कर दिया, तब उन्हें माता पिता की ज़रूरत नहीं होगी, और वे उनका ख्याल नहीं रखेंगे, ऐसी चिंता से भी माता-पिता अपने बच्चों के प्रति रक्षात्मक बनते हैं।

लेकिन क्या इस प्रकार बच्चों की भलाई होती है?
ऐसे लाड प्यार और क्रूर सचेतन भाव से बच्चों पर गलत असर पड़ता है। वे केवल मांगने वाले दरिंदे बनते हैं, दान की भावना तो उनमें होती नहीं।
वे स्वार्थी बन जाते हैं, भविष्य में यही बच्चे हर जगह अपना रुतबा जमाने की कोशिश करते हैं, सोचते हैं, जैसे उनके माता-पिता ने उनकी हर ख्वाहिश को सराहा, हर जगह सभी उनकी बात मानेंगे, सही गलत नहीं बताएंगे, पर ऐसा नहीं होता। ऐसे बच्चे लोभी होते हैं, चीज़ की कीमत उन्हें कभी नहीं होती, केवल खर्चा करना ही उनकी आदत बन जाती है।
ऐसे लोग बड़े होने के बाद भी दुर्बल रह जाते हैं, कोई भी काम वे मदद के बगैर नहीं कर पाते, घर साफ़ करना, खाना पकाना, बाजार में सामान खरीदना इत्यादि रोज़ के काम जिन्होंने कभी किया ही नहीं, वे इन सब कार्यों से दूर ही रहते हैं, और जब इन्हें कहीं बाहर जाकर पढ़ाई या नौकरी करनी पड़ती है, तब यह सब उन्हें तकलीफ नज़र आती है।
सच्चाई और वास्तविकता से ये बहुत दूर रहते हैं। भारत में हर काम के लिए कर्मी या नौकर हमें कम दाम में मिल जातें है, इसलिए अपना हल्का सामान भी कोई खुद नहीं उठाता, बच्चे को भी नहीं उठाने देते, कुली बुला लेते हैं। पर दूसरे देश में ऐसा नहीं होता, सबको अपना काम खुद ही करना पड़ता है, तब जाकर इन बच्चों को मुश्किल होती है, क्योंकि ना उन्हें आदत है, ना इच्छा।
बच्चों को प्यार देना ज़रूरी है, पर सही शिक्षा भी ज़रूरी है। ममता अगर अंधी हो जाए, तो बच्चों के भविष्य के लिए सही नहीं।
हर बच्चे को सक्षम बनाना ही माता-पिता का कर्तव्य है, ना कि उनसे ज़िम्मेदारी चुराना। उन्हें वास्तविकता का सामना करवाना भी माता-पिता का कर्तव्य है, ताकि आगे चलकर उन्हें कोई समस्या ना हो। चीज़ और अर्थ की कदर करना हर बच्चे को सीखना चाहिए।
माता-पिता को ही सब सिखाना चाहिए, क्योंकि बच्चे माँ-बाप की आँखों से ही दुनिया देखते हैं, उनसे ही सब सीखते हैं, इसलिए दायित्व पूर्ण परवरिश अति आवश्यक है।





