‘‘मैं, सत्रह वर्ष का उत्तराखंड ’’ शीर्षक से मैंने प्रयास किया कि राज्य गठन के अवसर पर राज्य के विभिन्न मुद्दों को आप सबके सामने रख सकूं। आप सबने मेरे लेख को पसंद किया, इससे मुझे नई ऊर्जा मिली है. कि मैं इस विषय को आगे बढ़ाऊं। आशा है कि आप सबके सहयोग एवं सुझाव मुझे ऐसे ही मिलते रहेंगे।
आज मैं, ऐसे विषय पर अपनी बात रख रही हूं, जिस पर शायद हर उत्तराखंडवासी को बोलना चाहिए या अपना पक्ष जरुर रखना चाहिए। 09 नवम्बर, 2000 को जब उत्तराखण्ड का गठन हुआ, तब हम सभी को उम्मीद और आशा थी कि इसकी राजधानी पर्वतीय क्षेत्र में ही होनी चाहिए। हमारे शहीद राज्य आन्दोलनकारी गैरसैंण के पक्षधर शुरू से रहे है और अभी भी संघर्ष कर रहे है। यदि तत्कालीन सरकार ने उस समय एक निर्णय लेकर गैरसैंण को राजधानी घोषित कर दिया होता, तो शायद आज उत्तराखण्ड की तरस्वीर ही कुछ अलग होती।
ऐसा नहीं है कि गैरसैंण राजधानी न बन पाने में कांग्रेस या भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों का ढीला रवैया रहा हो, बल्कि हमारी क्षेत्रीय पार्टियां भी सबसे बड़ी जिम्मेदार हैं। यदि राज्य गठन के बाद यूकेडी जैसी पार्टी सत्ता में शामिल होने के बजाय राज्यहित के लिए खड़ी होती तो शायद गैरसैंण को राजधानी घोषित करने में मदद मिलती।
कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों ने गैरसैंण को केवल एक खिलौने की तरह उत्तराखंडवासियों के सामने रखकर उसका इस्तेमाल किया है। पहले हरीश रावत सरकार और अब त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार, दोनो ही गैरसैंण पर अभी तक अपनी मंशा स्पष्ट नही कर पायी है। आज 17 साल हो गये हैं राज्य को बने हुए और लेकिन हम अभी तक अपनी राजधानी के मसले को हल नही कर पाये है। वर्तमान त्रिवेन्द्र रावत सरकार को जनता ने प्रचंड बहुमत दिया है, जिसका लाभ सरकार को लेना चाहिए। सरकार को गैरसैंण पर अपनी मंशा साफ करते हुए कोई ठोस निर्णय लेना चाहिए। या फिर व्यापक स्तर पर उत्तराखण्डवासियों के बीच जाकर जनता से राजधानी के मामले पर सुझाव व विचार ले सकती है। गैरसैंण को गैर बनाये रखना उत्तराखण्ड के हित में नही है। ये एक ऐसा सवाल है, जो प्रत्येक उत्तराखण्डवासी के मन मस्तिष्क में कौंद रहा है। क्यां उम्मीद कर सकते है कि जब उत्तराखण्ड 18वर्ष पूर्ण कर चुका होगा, तो तब तक गैरसैंण गैर नही रहेगी। उसका समाधान निकल चुका होगा।
नीलम नौटियाल की रिपोर्ट।
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